Thursday, September 1, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार -3



अपने अज़ीज़ दोस्त अतीक़ को लेकर माँढा के


राजा मियाँ का हिदू धर्म को छोड़ कर इस्लाम धर्म को अपनाना एक भूल कही जाएगी. इतनी बड़ी तबदीली बहुत सोच समझ कर करनी चाहिए थी, नज़रिए में तबदीली रातो रात नहीं आती. अपने परिवार के एक मुअत्बर सपूत थे, अपने धर्म की कमियों पर सख्त होकर अच्छे सुधार करते तो उनका यह क्रांति कारी क़दम होता. उनके इस फैसले से उनके दो चहीते अनुज उनके हाथ से जाते रहे. पूरा काशी राज शर्मिदा हुवा, इतना ही नहीं, हुमायूँ की शेर शाह सूरी पर पलट वार से खुद उनको काशी छोड़ कर भागना पड़ा.
सलोन में इनको मिले ३६० पुख्ता व खाम आबादियाँ और उनकी आराज़ियाँ जो इनको मिलीं वह सब उनके मुसलमान हो जाने की वजह से महफूज़ न रह सकीं, इलाके के हिन्दू ठाकुरों ने इन पर क़ब्ज़ा कर लिया. हमारे नव मुस्लिम पूर्वजों में से किसी ने अदालत में फरियाद गुज़ारी की थी और काबिज़ दार ठाकुरों ने अदालत हाजिरी दी थी. जब अदालत ने उनसे सवाल किया कि मौजूदः मिलकियत पर आप लोग कैसे काबिज़ हुए तो उनका खुला जवाब था

" बज़ोर लाठी"

हमारे नव मुस्लिम बुजुर्गों के पास न लाठी थी और न कोई यार व मदद गार.

दो बेटे अपने चाचाओं के पास वापस हो कर माँढा गए और पुनः हिदू धर्म में चले गए चले गए.
राजा मियाँ की चौथी नस्ल आते आते उनके तीन पड़ पोतों में ऐसी ठनी कि एक होने के बजाय मुतफ़र्रिक हो गए और बची हुई जायदादों के लिए एक दूसरे के दुश्मन हो गए और अपने अपने झंडे बना लिए. तीन भाई थे.

मियाँ शहाब खां,

मियाँ मदह खान

और मियाँ मुस्तुफा खान.

उनके नामों से उनकी औलादों ने अपनी अपनी अलग अलग पहचान बनाईं, ठाकुरों से वह

१-शहाब खानी

२- मदह खानी और

३- मुस्तुफ़ा खानी हो गए.

इन खानियों की कई खूनी जंगें हुई, नतीजतन यह एक बिरादरी बन कर खोखले हो गए.
राजा देव दत्त की नस्लों में इतनी गिरावट आ गई कि यह अपने दूसरे भाई को कमज़ोर करने में लग गए. जितना इन्हों ने आपस में एक दूसरे को पामाल किया है उसका सवां हिस्सा भी किसी दूसरे ने इन्हें पामाल नहीं किया. शहाब खानी इस की ताब न ला सके और खूब फलने फूलने के बाद भी शजरे से पूरा का पूरा कबीला रूपोश हो गया.

बाकी बचे दोनों खानियों की औलादें सलोन छोड़ कर,ज़्यादः तर दूसरी जगहों पर जाकर बसीं.
ठाकुर वैसे भी आन बान शान को रखने के लिए बाहु बली होता है, फिर मुस्लमान होकर जिहादी भी हो गया, गोया इस माहौल में वह दो आयिशा बन चुका है. हमें अपने मौजूदा माहौल में देखा है कि हमारे बुज़ुर्ग किस क़दर नाकिस और ख़ुदसर गुनाहगार हो चुके हैं. वह हर वक़्त इस फिराक़ में रहते हैं कि कैसे अपनों को कंजोर किया जाए, कोई अपने आगे दूसरे को बढ़ता नहीं देख सकता. वह भागे हुए परदेसी को भी नहीं बख्शते, कुछ नहीं तो उनको झूटे मुक़दमों में ही फंसा देते हैं, और अपने इस बद अमली पर खुश होकर कहते हैं कि

"साले को काम पर लगा दिया है"
किसी का बुरा सोचना ही हराम है, फिर अपने भाई बन्दों के लिए खैर न सोचना भी हराम है. इनका अल्लाह इनको अकले सलीम दे.
शजरा के तकमील के बाद मेरा हौसला बढ़ा मज़ीद तलाश और जुस्तुजू ने अंगड़ाई ली मगर तंग दस्ती आड़े आई, ग़ुरबत की खाईं को पाट लेना मेरी पहली मंजिल थी, जिसे १९६९ तक मैं ने हासिल कर लिया था. हालत साज़गार हुए तो एक बार फिर अपने बुज़ुर्गों के सुने सुनाए किस्से याद आने लगे.

मैंने उन तीरथ के सफ़र का क़स्द किया जहाँ से हमारे मूल पुरुष राजा मियाँ सदियों पहले आकर, सलोन को अपनी पनाह गाह बनाया था.
सबसे ज्यादा चर्चा माँढा का हुवा करता था कि मूरिस ए आला राजा मियाँ के हिन्दू भाई बंद अभी भी माँढा के राजगान जाने जाते हैं. हमारे बुज़ुर्गों में से कोई एक बार माँढा गया हुवा था जिसे वहां के राज घराने ने एक लाठी उस बँसवारी की भेंट की थी जो सिर्फ गहर्वारों के लिए मखसूस थी.

मैं ने अपने अज़ीज़ दोस्त अतीक़ को लेकर माँढा के सफ़र का प्रोग्राम बनाया जिनके कायस्त पूर्वज हमारे पूर्वज के साथ ही माँढा से सलोन आए थे.




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