Saturday, September 24, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार (२७)





मुहम्मद अय्यूब खान >



<मोहम्मद इस्हाक़ खान



अज़ीज़ सलोनी के साथ जुनैद












सलोन के मुस्लिम गहरवार (२६)


हमारे गहरवार बुज़ुर्ग


चौधरी अफ़ज़ाल अहमद खां


चौधरी नियाज़ अहमद खां (अच्छन)
और
चौधरी अब्दुल बारी खां






Friday, September 23, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार (२५)

मुवाल्लिफ़ के दादा
लाल मुहम्मद खां चौधरी बक़लम खुद
के
दस्तख़त दस्तावेज़ के सफ़े पर








मुवाल्लिफ़ के वालिद
जनाब क़ुबूल अहमद खां


Sunday, September 11, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार (24)








यह दस्तावेज़ मुझे शब्बीर अहमद वल्द बशीर अहमद से हासिल हुवा जो कि भुट्टी दादी के नवासे होते हैं.
मैं उनका शुक्र गुज़ार हूँ.














सलोन के मुस्लिम गहरवार (23)


























































यह दस्तावेजें शजरे के साथ अब इंटरनेट पर महफूज़ हो गई हैं.

Saturday, September 10, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार (22)







































































यह दस्तावेजें शजरे के साथ अब इंटरनेट पर महफूज़ हो गई हैं.



Monday, September 5, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार (21)































































यह कीमती दस्तावेज़ गालिबन इस्तेमरारी बन्दों बस्त लागू होने के बाद के हैं. इसमें गहरवार ज़मींदारों के नाम और ज़मीन का रकबा दर्ज है. उस वक़्त ज़मीन की कोई ख़ास क़ीमत न थी, न ही
ज़मीन गुज़ारे के लिए काफ़ी हुवा करती थी. इन ज़मीनों के बल बूते कोई बशर अपने परिवार का गुज़ारा नहीं
कर सकता था. खेतियाँ मेहनत कश अफ़राद ही बचा सकते थे जो ज़मीन दारी के मालिक ज़मीन दारों के बस की बात नहीं रह गई थी.
सलोन से गहरवारों का बकसरत हिजरत परदेसों को इन्हीं वक्तों में हुवा. ग़रज़ ज़राअतें हाथों से निकलती गईं.
यह बेश बहा दस्तावेज़ मुझे शराफत उल्लाह (वल्द लाल मियाँ) से हासिल हुए जिनके दादा

मेड़ई खान परदेस में रहते थे और भारी भरकम जमीन दारी नस्लों के हाथों से जाती रही.

मैं भाई शराफत उल्लाह का शुक्र गुज़र हूँ कि उन्हों ने अपने बुजुगों की अमानत दारी की जो मेरे काम आई.















































































सलोन के मुस्लिम गहरवार (20)

शजरे का शजर अपनी जड़ों को संभाले हुए तकरीबन ऊपर की शाखों तक पहुँच गया है, इसमें अभी तक लगभग ७०० नाम दर्ज हो चुके हैं और कहीं कहीं पुश्ते बीसवीं पायदान को छूती हैं. हालाँकि मेरा अंदाज़ा है कि मूरिसे आला की नस्लों का ये चौथाई हिस्सा है. जो लोग इस में शामिल नहीं किए जा सकते वह मुस्तनद नहीं है कि उनकी नस्ली कड़ियों का मीलन नहीं हो पाया.
कुछ लोग सोचते होंगे कि इन गड़े हुए मुर्दों की कब्रें खोलने का क्या फ़ायदा?
मैं उनको मुतमईन तो नहीं कर सकता, हाँ! इतना ज़रूर कहूँगा कि तवारीख ए इंसानी इन्हीं गड़े हुए मुर्दों में छिपी हुई है, जब हमारा समाज पूरी तरह से इंसानियत का दामन थाम लेगा और सिर्फ इंसान के आलावा कोई हिन्दू मुस्लिम वगैरा नहीं बचेंगे तब यह इंसानी पहचान बे मानी हो जाएगी.
मेरे इस मुहिम का मक़सद है, जैसे किसी शजर के फल फूल और पत्तियाँ एक दूसरे के पोषक रहते हैं, वैसे ही गहर वर और खास कर मुस्लिम गहरवार (जो निस्बतन बहुत पामाल हो चुके हैं) एक दूसरे के यार व मदद गर हो जाएँ.अपने फल फूल को
नुक़सान पहुँचाना कोई अच्छा काम नहीं है.
किसी को नुक्सान पहुँचाए बगैर एक दूसरे का फ़ायदा सोचें.





सलोन के मुस्लिम गहरवार (19)

अजीजो !
भूल कर भी किसी से न कहना कि तुम राजा मियाँ, काशी नरेश राजा देव दत्त की नस्लों में से हो. कहना हो तो सिर्फ खुद से कहना, अपने गरीबान में मुँह डाल कर झाँकना कि तुम आज हक़ीक़त की ज़मीन पर क्या हो कहाँ हो ? तुम्हारी पामाली तुम्हारे लड़ाका बुजुर्गों का नतीजा है,जो अनजाने में नफ़रत के शिकार रहे और तुम्हें बद तरीन हालत में लाकर खड़ा कर दिया है.
ख़बरदार ! उनको बुरा भला भी मत कहना कि वह नादान थे. अब तुमको समझदार बन्ने की ज़रुरत है.
अपने अन्दर एहसास पैदा करो कि तुम्हारे अन्दर खून की धार उनकी है जो हुक्मरान हिंद हुवा करते थे. खुदा न करे कि तुम हुक्मरानी के कोई जुज़ बनो, मगर बेहतर इन्सान बनना तुम्हारे अख्तियार में है. तुम सच्चे और ईमानदार इंसान बनो, अपने और अपने बच्चों के हलक़ में बे ईमानी का एक लुकमा भी मत जाने दो. अपने बच्चों को भरपूर तालीम दो, भले ही तुम को आधा पेट भूका रहना पड़े. तालीम ही तरक्की की सीढ़ी है.
अहद करो कि तुम अपने भाई बंद के हर मुमकिन मदद गार रहोगे,
दिलों का निफ़ाक़ ख़त्म करके एक दूसरे के मदद गार हो जाओगे,
मगर इस फेल से किसी तीसरे का सीधा नुकसान न हो.
एकता कायम करो, एकता में बड़ी बरकत है, साथ साथ नेकता का भी ख़याल रहे कि नेक इंसान ही अच्छे काम कर सकता है.



सलोन के मुस्लिम गहरवार (18)





आईने का सच

*क़ानून ए फ़ितरत पर यक़ीन रखना, है सच्चा ईमान है.
*बे खौफ होकर वजूद की गहराइयों में डूबें, अपने आप से सवाल करें कि आप क्या हैं?
* जो जवाब मिलें वही आप हैं.
*आपकी विरासत ने आप को जाने क्या क्या बना रक्खा है,
*माहौल के कठ मुल्लाओं ने आपको गुमराह कर रखा है.
*हम जुग्राफियाई एतबार से अपनी ज़मीन की रचना हैं,
*ऐतिहासिक सांचों ने हमारे पैकर को गलत ढाल दिया है.
*हजारो इलाकाई और तबक़ाती खुदा वहदानियत की तलवार से अगर झूठे साबित हो चुके है,
*तो अभी यह साबित होना बाकी है की खुदा वाहिद है,
*खुदा है भी या नहीं?
*हम सिर्फ एक इंसान हैं, हमारे धर्म की खुशबू इंसानियत होनी चाहिए.
* जब इंसानियत का फूल पूरी तरह से खिल उठेगा तो ज़मीन पर फैली तमाम ग़लाज़तें अपने आप काफ़ूर हो जाएंगी.
* मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना - - - सबसे बड़ा झूट है.






जुनैद 'मुंकिर'

सलोन के मुस्लिम गहरवार (17)




मुस्लिम गहरवारों के नाम


ख़ुद को कहते हो गुलामाने-रसूले-अरबी1,
हैसियत दूसरे दर्जे के लिए हैं अजमी2,
तीसरा दर्जा हरब, रखता है 'मुंकिर', हरबी.
और फ़िर दर्जा-ऐ-जिल्लत4 पे हैं हिन्दी मिस्कीं5,
बरतरी को लिए मगरूर हैं काबा के अमीं,
सोच है कैसी तुम्हारी ? भला कैसा है यकीं ?
 
हज से लौटे हुए हाजी से हकीक़त पूछो,
एक हस्सास से कुछ करबे-हिकारत पूछो।

है वतन जो भी तुम्हारा, है तुम्हें उसकी क़सम,
खून में पुरखो की धारा है? तुम्हें उसकी क़सम,
नुत्फे१० की आन गवारा है? तुम्हें उसकी,
जेहन का कोई इशारा है ? तुम्हें उसकी क़सम,
अपने पुरखों की खता क्या थी भला हिदू थे ?
क़बले इस्लाम सभी हस्बे खुदा हिन्दू थे।
जेब११ देता ही नहीं पुरखो की अजमत१२ भूलो,
उनको कुफ्फर१३ कहो और ये बुरी गाली दो।

क़ौमे होती हैं नसब14 की कोई बुनियाद लिए,
अपने मीरास१५ से पाई हुई कुछ याद लिए,
तुम बहुत खुश हो बुरे माजी१६ की बेदाद१७ लिए,
अरबों की जेहनी गुलामी18 की ये तादाद लिए।

अपने खूनाब19 की, नुत्फे की तहारत20 समझो,
जाग जाओ नई उम्मत21 की जरूरत समझो।


अज सरे नव22 नया एहसास जगाना होगा,
इक नए बज्म२३ का मैदान सजाना होगा।
इक नई फ़िक्र24 का तूफ़ान उठाना होगा,
मादरे हिंद में ही काबा बनाना होगा।


राम और श्याम से भी हाथ मिलाना होगा,
नानको-बुद्ध को सम्मान में लाना होगा,
दूर तक माज़िए नाकाम25 में जाना होगा,
इस ज़मी का बड़ा इन्सान बनाना होगा।
 
१-मुहम्मद-दास 2-अरब गैर अरब मुस्लिम देशों को अजम कहते हैं ,वहां के रहने वालों को अजमी अर्थात गूंगा कहते हैं जोकि हीन माने जाते हैं .ठीक ऐसा ही हिंदू शब्द अरबों का दिया हुआ है जिसके माने अप शब्द हैं जिस पर कुछ लोग गर्व करते हैं .३-सभी गैर मुस्लिम देश को मुस्लिम हरब कहते हैं ।वहां के बाशिंदों को हरबी यानी हरबा (चल बाज़ी )करने वाला. ४- अपमानित श्रेणी ५-भारतीय भिखारी (ये हमारे लिए अरबियों का संबोधन है ) ६-श्रेष्टता ७-न्यास धारी ८-सच्चाई १०-शुक्र ,वीर्य ११-शोभा १२-मर्यादा १३-मूर्ति-पूजक १४-पीढी १५-दाय १६-अतीत १७-ज़ुल्म १८-मानसिक दासता 19-मर्यादित रक्त २०-पवित्रता २१-वर्ग २२-नए सिरे से २३-सभा २४-चिंतन २५-असफल २६-अतीत
************************************************
 
 

सलोन के मुस्लिम गहरवार (16)





इन्हीं मफ्कूदुल खबर में मैंने अपना नाम देना पसंद किया है. आज हूँ ,कल न होऊंगा, जैसे यह हमारे बुजर्ग कल थे, आज नहीं हैं.


गुल की मानिंद पी है हमने जहाँ में जिंदगी,
रंग बन कर आए हैं, बू बन के उड़ जाएँगे हम
.
 
बड़ा ही करब नाक मेरा बचपन था. एक वक़्त की रोटी के बाद दूसरे वक़्त का ठिकाना न रहता. एक ही कपडे को बरसों लादे रहता. इन हालात में खेतों और बागात की चोरी भी मुझे करनी पड़ती. दस साल तक किसी स्कूल का मुंह नहीं देखा, मेरे रिश्ते के मामा ने मज़्कूरह " जूनियर हाई स्कूल सलोन'' खोला और पांचवीं दर्जा पास बच्चों की एक क्लास बनाई, मोहल्ले के लाखैरे बच्चों को बाहर वरांडे में बिठा कर स्कूल का वज़न बढाया, उन्हीं लाखैरे बच्चों में एक मैं भी था जिसने किसी तरह से छटवां दर्जा पास करते हुए नवीं दर्जे में सर्वोसय विद्या पीठ इंटर कालेज सलोन में प्रथम स्थान हासिल किया.
सिर्फ छः सालों में हाई स्कूल पास करने के बाद फिर हौसला जवाब दे गया. आधे पेट के खाने और भर पेट बड़ों की मार और गलियाँ अब और गवारा न हुवा .
१९६० में सलोन से बाहर निकल कर, तबा आज़माई की, छः साल खना बदोशी में कटे, फिर मौक़ा मिला, मुझे अपनी सब से बड़ी दुश्मन गरीबी को मात देने का.गरीबी से नजात मिली तो दौलत की भूक भी जाती रही. इस बीच जितना मुमकिन था अपनों को सहारा देता रहा और उन्हीं से मात खता रहा.
पुवर फंड लेकर पढने वाला बच्चा लाखों रुपिये इनकम टेक्स भर चुका है. मैं मुतमईन हूँ कि धरती पर आकर धरती का हक अदा कर रहा हूँ.
मेरी चार लायक़ औलादें हैं, यही मेरी जमा पूँजी है.
बड़ी बेटी डाक्टर आसिया चौधरी अली गढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में लेक्चरार है.
दूसरी बेटी फराह खान कर्नल अशरफ़ खान की बीवी है और अपनी तालीमी बरकतों का फायदा उठा रही है,
बड़ा बेटा फैजी चौधरी तालीम की सीढ़ियाँ चढ़ता हुवा लन्दन पहुंचा और U K की नेशनलटी हासिल की.
चौथा बेटा मंज़र चौधरी सोफ्ट वियर इंजीनियर बन कर फ़िलहाल बंग्लोरू में कयाम पजीर है.
मैंने बचपन से ही मेहनत और मशक्क़त का सामना किया, जवानी में सोलह घंटे रोज़ाना काम किया, अब ज़ईफ़ी और बीमारी ज़िन्दगी में हाइल हो गई है,फिर भी आठ घंटे काम करता हूँ. अब कोई काम ऐसा नहीं करता जिसमें पैसे की चाह हो. मेरा सारा वक़्त इंटर नेट पर गुज़रता है जहाँ अपने ब्लॉग के मार्फ़त मैं अनजानों को इंसानियत की राहें दिखलाता हूँ, सच्चाई मेरी तहरीक है और झूट से मेरा बैर है.

झूट हर हालत में झूट है, चाहे वह मज़हबी अल्लाह बोल रहा हो या धर्मों का भगवन.


दुन्या ने तजुर्बात व हवादिस की शक्ल में ,
जो कुछ मुझे दिया है वह लौटा रहा हूँ मैं.

Sunday, September 4, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार (15)

मफ्कूदुल खबर

शजरे में मफ्कूदुल खबर बुजुर्गों के कुछ नाम हैं जिनके तह्कीकी नतायज अख्ज़ करने के बाद नज़रिया क़ायम किया गया है.

१-गुलाम अली ? अब्दुर रहमान की औलादें ज़्यादः तर पकसरावाँ मे आबाद हुईं, सलोन में दो भाई अस्सू बजाज और इब्राहीम की नस्लें आबाद हैं. अब्दुर रहमान के पर दादा के भाई गुलाम अली मज़कूरा होते हैं. इससे ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह दो पुस्त पहले पकसरावाँ जाकर आबाद हुए.

२-भग्गू खान --- मौजूदः मज़हर खान और हकीम सिफात

३- जोर अवर खान --- मौजूदः रिश्तेदार - - - डा. इलियास और डा. शकील

४- अमीर बख्श - - - " "

५- फकीर बख्श - - - " "

६-अमीर बख्श " "

७-मुख़्तार अहमद " क़दीर अहमद

८-बुद्धु खान राय बरेली बसे

९- मुनव्वर खान - - - मौजूदः रिश्तेदार - - - अब्दुल खालिक

१०- अब्दुल सत्तर खान - - - मौजूदः रिश्तेदार - - - मंज़ूर अहमद

११अब्दुल रहमान खा - - - मौजूदः रिश्तेदार - - - "

नीचे अफराद जिनकी औलाद दुख्तरी हुईं.

मियां फीरोज़ खान व् मियाँ बेचू खान - - -मौजूदः रिश्तेदार - - - अफज़ल अहमद

मियां अब्दुल शकूर खान- - - मौजूदः रिश्तेदार - - - "

छिद्दू खान - - - मौजूदः रिश्तेदार - - - अफज़ल अहमद फज़ल अहमद जौजे इकरामुन बीबी (बाज़ार फज़ल गंज) इन्हीं के नाम पर हुई.

करीम खान. शकूर खान - - - भुट्टी दादी के चचा

मियां बिक्कू खान - - -मौजूदः रिश्तेदार - - - अतीक अहमद

आबिद अली हवालदार व् नज्जू खान मौजूदः रिश्तेदार - - - शमशाद अली

खुदा बख्श, अकबर खान बशारत खान, सहकन खान ,मुहम्मद शफी, ख्वाजा बख्श वगैरह लावालाद है या कोई औलादे दुख्तरी है ?
रमजान अहमद - - - मौजूदः रिश्तेदार - - - (मुश्ताक अहमद उर्फ़ नन्हे) . इन्हीं की बेटी - - -

"एक थीं भुट्टी दादी".

सलोन के मुस्लिम गहरवार (14)





माज़ी करीब की कुछ गहरवार शख्सियतें :
बीसवीं सदी के आगे और पीछे गहरवारों में कुछ नामदार हुए हैं जिनका ज़िक्र पेश है - - -
अंग्रेजों द्वारा बनाए गए सलोन के ६ नंबरदार हुवा करते थे. . .
१-नंबरदार असग़र खान ---जिनकी नस्लें चौधरी नियाज़ अहमद उर्फ़ अच्छन मियाँ की औलादें हैं.
२-नंबरदार बासित खान ---जिनके बेटे माजिद खान लावल्द हुए.
३-नंबरदार रशीद खान --- लावलद हुए. सौतेले भाई मजहर खान की औलादें मुंबई में रहती हैं. ४-अलीम खान --- लावलद गुज़रे, लड़की क़दीरून बीबी थीं.
५- नंबरदार सत्तार बख्श खान --- लावलद हुए, नवासे अब्दुल बारी मुखिया हुए जिनकी नस्लें नब्बन छब्बन और मेरे अज़ीज़ दोस्त रज़ी हैं.
६- अरशद अली खान ---इनका खानदान खूब फला फूला. नामी हकीम सिफ़ात साहब और उनके बेटे डाक्टर निहाल और मेरा प्यारा दोस्त अयाज़ इनकी नस्लों में मौजूद हैं.

असगर खान
इन नम्बरदारों में असगर खान अपनी ताक़त के लिए मशहूर थे. उनके कई क़िस्से हमारे बचपन में सुने जाते थे. . .
अपने मजदूर को दो किलो मीटर दूर गाँव से आवाज़ लगा कर बुलाते.
सुदीन के पुरवा से बबूल का पेड उखाड़ कर रातो रात अपने घर तक घसीट ले, इस तकरार के बाद कि इससे गाड़ी की पहिया कौन बनाएगा ? असगर मियाँ या किसान.
इसी पूर्वे से किसान से कुछ कर्बी मांगी, उसने कहा मियाँ ले जाइए जितना ल़े सकें. दो बीघे की कर्बी नहन में बाँधी और सर पर लाद कर घर ले आए.
७- रौशन खान --- राजा मियाँ की तीन औलादों में एक थे शहाब खान, शहाब खानी खूब फले फूले मगर कुछ ऐसा हुवा कि यह पेड़ सूख गया . रौशन खान इसके आखिरी चास्म चिराग रहे. रियासत का कुछ हिस्सा यह बचाए हुए थे और मॉल गुज़री पालकी से मजदूरों के साथ वसूलने जाते. इन्होने सलोन में पहला पक्का मकान लखोवरी ईंटों का बनवाया जो उस ज़माने के हिसाब से महेल कहा जाता था. यह भी लावालाद हुए एक लावारिस बच्चे को औलाद बनाया जोकि उनको किसी गाँव में सफ़र के दौरान मिला था. इनकी बेगम उस बच्चे के लिए बाकायदा सोवर बैठीं और बड़े धूम धाम के साथ उसका रस्मो-रिवाज हुवा. नाम रखा गज़न्फर खान, गोया शेर खान . गज़न्फर खान की औलादों में मुंशी नजीर का खानदान है.
८- मोलवी हामिद अली खान ---सबसे पहले मैं मोलवी साहब के वालिद मोहतरम का शुक्र गुज़ार हूँ कि उन्हों ने अपनी औलाद को अच्छी तालीम और तरबियत दी.
आप बड़े अलिम थे जिनका मुकाम निज़ाम हैदराबाद के दरबार में अव्वल दर्जे पर था जहाँ हिदोस्तान के जाने माने जोश मलिहादी जैसी हस्ती हुवा करती थी. मोलवी हामिद अली खान को दरबार में खास छूट थी कि वह पान खा सकते थे. मेरी नानी बतलाती थीं कि हामिद उनको सताने के लिए दहेरयत की बात करता और डाँटा जाता.
वह फारसी के आलिम थे. शाह नईम अता शाह और मेरे नाना के दोस्तों में थे. एक बार उन्हों ने चालीस ईरानी मुश्तःदों को दरबार में कायल करके हराया था.
आप हैराबाद गए वहीँ दूसरी शादी कर ली और वहीँ के हो गए. उनकी अवलादों में महमूद पटवारी और मुहम्मद सलोन में रहते हैं.
-चौधरी इकबाल खान ---- नामवर शख्सियत थे भले ही उनके नफ़ी कारनामे थे. रिआया को नीम के पेड़ में बांध कर पिटाई करते. आज की नई बाज़ार उनकी ही विरासत थी जिसे बनियों के खाते में उधारी में चुका दिया. पाकिस्तान जाकर अपना अंजाम कायदे से भुगता.
१०- बुन्याद अली खान ---आप बरतानवी फ़ौज में हवालदार थे. अपनी मुलाज़मत में कई गैर मुल्की दौरे किए. टर्की गए तो अता तुर्क कमाल पाशा से रूबरू हुए और उन से मुसाफ़ा करने का शरफ़ हासिल किया. जापान से छिड़ी मुत्तःदा फ़ौज की तरफ से जंग लड़ी. पुर वकार शख्सियत थे. पढने लिखने का जौक था. मुझे उनसे काफी मालूमात हुई.
११
- अहमद शाह --- नाम था अहमद खान. कलंदर तबअ ज़ात थी. तालीम याफ्ता थे. पांव पैदल ही हज के लिए निकल गए, रास्ते में किसी मुल्क में कानून शिकनी की, गिरफ्तार होकर हाज़िर अदालत किए गए. दर असल उनके पास अफीम थी, उन्होंने कहा यह मेरी गिज़ा है, इससे हमें महरूम नहीं किया जा सकता. जज ने उनके सामने एक पाव अफीम का गोला रक्खा और कहा, अपनी गिज़ा को खा कर दिखलाओ. अहमद शाह सारी अफीम चट कर गए. दूसरे दिन उन्हें भला चंगा देख कर माफ़ कर दिया और मआजरत ख्वाह हुवा. गैर शादी शुदा थे, मफ्कूदुल खबार हुए. मौजूदा खानदान मुंशी आफाक़ का है.
१२- शमीम अहमद खान --- आज़ादी के बाद सलोन के पहले गहरवार प्रधान हुए. टाउन एरिया होने के बाद पहले चेयर मैन हुए, महिला शीट हो जाने पर भी सलोन की गद्दी पर कायम रहे. खानदानी तफरका के बाईस हार का मुंह देखना पड़ा. बहुत कुछ सलोन के लिए कर सकते थे मगर उनके इक्तेदार तक सलोन की किस्मत नहीं बदल पाई.
१३- मुंशी आफाक --- हमारे उस्ताद रहे. अच्छे ताजिर बन कर गहरवारों में उभरे थे, ईमान की कमजोरी ने उन्हें पामाल कर दिया. एक स्कूल "सलोन जूनियर हाई स्कूल'' खोला. मैंने क ख ग का अक्षर ज्ञान दस साल की उम्र में वहीँ से पाया. तीन साल में स्कूल भी बंद हो गया.
बला के ज़हीन थे. मेरी याददाश्त के तल्ख़ और मीठे लम्हे उनसे वाबिस्ता है.
१४- डाक्टर इल्यास --- गहर्वारों में पहले डाक्टर है जिन्हों ने अपने लायक बेटे मुफज्ज़ल को सलोन का पल्ला M. B . B . S. डाक्टर बनाया.
१५-चौधरी नसीम अहमद - - - गहरवारों में पहले सपूत हैं जो L L B करके कामयाबी हासिल की और बेटे को M M B S कराया. राय बरेली में आबाद हुए. कुछ दिनों के लिए राजीव गांघी के करीब रहे.

सलोन के मुस्लिम गहरवार 13



सलोन के लैंड माक्र्स :-


१-गुमनाम मजारें मूरिसे आला राजा मियाँ और रानी साहिबा की जो कब्रिस्तान में वाकअ है.
२- मूरिसे आला की कब्र से मुल्हिक गुम नाम मसिजद ३-सल्ला बाबा की मसिजद ४-दिलवर शाह की मसिजद ५-कच्ची मसिजद ६- कोतवाली की मसिजद ७-थवाहियों की मसिजद ८- खानकाह की मसिजद ९-खातून की मसिजद (खानकाह की मसिज्द के पास ) १०- शाहजी की मसिजद (गुरही) ११-शेखों की मसिजद १२- उस्मान खान की मसिजद १३सरायं की मसिजद
१४- सुब्बा रंगरेज़ की मसिजद १५- मिल्कियों की मसिजद १६- शियों की मसिजद १७- कैथाने की मसिजद १८-पैगम्बर पुर की मसिजद १९-नई बाज़ार की मसिजद २०- तवककली की मसिजद २१-चक्ले की मसिजद २२- मसिजद ज़मीं दराऊ २३- मुनव्वर गंज की मसिजद
२४- हाजी हुसैन की मसिजद २५- किंगिर्यों की मसिजद




इनके आलावा कुछ मखसूस मुक़ाम :-
*रौजः ए मुक़द्दस खानदान ए करीमी * खानकाह करीमी *कर्बला *ईदगाह *मजार सय्यद शकूर ओ सय्यद गफूर * रौजः कब्रिस्तान * इमाम बाड़ा मुत्तसिल कचेहरी *मजार शहीद मर्द बाबा. *मरहला जो अपने ज़माने में १०० फीट ऊंचा था इनके अलावः चार मंदिरें और एक गुरु द्वारा जो हाल में ही वजूद में आए. किसी ज़माने में सलोन को तीन हिस्से में जाना जाता था :
सलोन आयमा : पूरब जानिब का हिस्सा
सलोन खालसा : पश्चिम जानिब का हिस्सा (चौधराना)
करीम गंज बीच का हिस्सा

*सलोन का बिरादराना
सलोन में आबाद बिरादरी आपस में एक दूसरे की ज़रुरत पूरा करती रहीं.उनकी पहचान मंदार्जा जेल है :
१-मुस्लिम गहरवार २- मुस्लिम बैस ३- मुस्लिम कायस्थ ४-शेख ५- सय्यद ६-पठान 7 - मिल्की (शिया) 8-जाफ़री (करीमी) ९ - मेवाती १० - जुलाहे ११ - बेहने १२ -नाई १३ - कुंजड़े १४ -कसाई १५ - चिक्वे १६ - दर्जी १७ -थवही १८ - रंगरेज़ १९- मिरासी २० -हलवाई २१-घोसी २२- घसयारा
२३-चूड़ीहार २४-किंगिरिया २५- डफली २६-फ़कीर २७- मेहतर २८- रंडी भडुए.
२९-रस्तोगी ३०- सिख ३१- बनियाँ ३२-तेली ३३- हलवाई ३४- कलवार ३५- धरकार ३६- पटहार ३७- सोनार ३८- भुन्ज्वा ३९- कुम्हार ४०- लोहार ४१- बढई ४२-धोबी ४३- अहीर ४४- गडरिया ४५-मुराई ४६ -चमार ४७- पासी ४८-भड्डरी ४९-बरहमन ५०- तंबोली ५१-भंगी.




गंज शहीदां
सलोन के उत्तर जानिब ईद गाह में बनी एक चौकोर दरगाह में दो मजारें हैं. यह मजारें सय्यद सालार मसूद गाज़ी के दो सिपाहियों की हैं यह दोनों शहीद सय्यद शकूर और सय्यद गफूर, भाई भाई थे. रवायत है कि यह दोनों मैदान ए जंग से निकल कर अपने घोड़ों पर सवार सलोन आए, तंबोली की दूकान पर तंबोली से पान की फ़रमाइश की. तंबोली इन्हें देख कर डर गया और कहा आपके सर तो हैं नहीं, पान कैसे खएगे? यह सुनते ही दोनों धड घोड़ों से गिर गए. ये रवायती बात बातें है जो अक्सर मन गढ़ंत होती हैं और सच जैसी प्रचलित हो जाती हैं.
दोनों लाशों की सूरत ए वकुअ यूँ थी कि सर (नदारत)उनका मशरिक जानिब था और पैर मगरिब जानिब. उनकी कब्रें इस्लामी शरीअत के मुताबिक खोदी गईं और लाशें उसमें दफनाई गईं, उसके बाद कब्रें खुद बखुद शुमाल जुनूब से मशरिक और मगरिब जानिब हो गईं. इन क़ब्रों को आज भी देखा जा सकता है. मगर रवायत बहर हाल रवायत होती हैं, नामों और पेशे पर भरोसा किया जा सकता है.
यहाँ औरते मन्नत मानने आती है, मुराद पूरी होने पर चढ़ावा चढ़ती हैं. बहुत पहले वक्तों में यहाँ लोग आकर रिश्ते तय किया करते और शादी हो जाने पर नान्द मुर्ग़, पराठे बिरयानी और शोरबेदार चीजों पर फातेहा करते. हिन्दू बिरादरी की कुछ कौमें दूल्हे के डोले को यहाँ लेकर आते और आशीर्वाद लेते. तालीम आने के बाद अब बातें इतिहास हो चुकी है. मुझे अच्छी तरह होश है की शाह नईम अता शाह यहाँ अपने बुजुर्गों के उर्स के बाद गागर भरने आते और लोग उस पानी को प्रसाद की तरह ग्रहण करते.



Saturday, September 3, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार (12)




सलोन
सलोन एक क़दीमी बस्ती है, इतनी क़दीम कि इसे आसार कदीमा के हवाले करके इसके इतिहास तक पहुँचा जा सकता है. सलोन को सालिवाहन नाम के शाषक ने आबाद किया था, इसका नाम उसी के नाम पर सालिवाहन नगर हुवा. बस्ती पर कुदरती आपदा आई, यह तो यकीनी है, मगर कब आई, उसका रद्दे अमल क्या रहा, इसके बारे में कोई इतिहास नहीं मिलता. सलोन कि ऊंची नीची ज़मीन कहती है कि इसकी यह बहुत प्राचीन भौगोलिक रचना नहीं है, बलकि यह भूमि का एक ऐतिहासक परिवर्तन है. खुदाई करने पर अकसर आसार मिलते हैं. सलोन अपनी वीरानी को बहुत दिनों तक झेलता रहा, फिर मुस्लिम काल इस सर ज़मीन पर दोबारा आबाद हुवा. सय्यद शकूर और सय्यद ग़फूर की मजारें जो गंज शहीदां कही जाती हैं, आबादी से हट कर किस रिआयत से उत्तर में वाकेअ है, कयास है कि यहाँ पर राजा सालिवाहन का कोई स्मारक या पूजा स्थल रहा होगा जिसे मुस्लिम काल में तब्दील कर दिया गया होगा. हिदुस्तान में ऐसी हजारो घटनाएँ घटीं,
सलोन का भव्य रौज़ा किसी सौदागर ने बनया था जो सय्यद पीर मुहम्मद या उनके वंशज करीम अता शाह का मुरीद था. उसने अपनी तिजारत की सारी दौलत इसी रौजः पर सर्फ़ कर दिया था. उसकी कब्र भी १९६० तक मुजाविर के खेत में वाकेअ थी.

सय्यद पीर मुहम्मद शाह कड़ा मानिकपुर आकर सलोन आबाद हुए थे. किंदँतियाँ मशहूर है कि उनके जप तप से काबिज़ देव ने रौजः की ज़मीन का त्याग किया. वह मकबूल हुए तो अतराफ़ के मुस्लिम तबके आकर सलोन में आबाद हुए. पीर मुहम्मद शाह का सिलसिला कुछ इस तरह है: --
२- मुहम्मद अशरफ़ शाह ३- मुहम्मद पनाह शाह ४- मुहम्मद करीम अता शाह ( मुहल्लाह करीम गंज इनके नाम से है.)
५- शाह मुहम्मद पनाह अता ६- शाह हुसैन अता शाह ७- शाह मेंहदी अता शाह ८- शाह नईम अता शाह.(ला वलद)
रौजः में पहले सात पीरों की कब्रें हैं.
(१९६०)आज से पचास साल पहले की सलोन की तारीखी और जुगाराफियाई हैसियत दर्ज है जो आने वाले पचास साल के बाद नई नस्लों के लिए दिल चस्प इतिहास होगा.


*सलोन के बटे हुए मोहल्ले
१-कोतवाली २- ठाकुर द्वारा ३- चौधराना ४- ऊंचा ५-अहिरन टोला ६- ज़मीं दराऊ ७- जुलाहन टोला ८-चुडिह़ारन टोला ९-चमर टुलिया १०- खरव्वान (भंगियों का ठिकाना) ११-नरिया १२- गुराहिया १३- शाह जी का पुरवा १४- धुबियन टोला १५-सय्यद गंज १६- चमर टोलिया (गुरही)
१७-निभाडा १८-किंगिरयन टोला १९-पठन टुलिया २०-मिलकियाना २१-नेवती मोहल्ला २२-हुसैन गंज २३- किला २४- चकला २५- मुनव्वर गंज २६- हज़रात गंज २७-फज़ल गंज २८-पैगम्बर पुर २९-कैथाना ३० - सरायं ३१-करीम गंज

सलोन के मुस्लिम गहरवार (11)




अपने जैसे


ज़ेरे दामन विन्ध्याचल यानी इलाहबाद, वाराणसी और में हिदू गहरवारों के साथ साथ मुस्लिम गहरवार शाने बशाने बकस्रत पाए जाते हैं सलोन की तरह ही अपने हिन्दू पूर्वजों का इतिहास और अपने मूल पुरुष का नाम उनको भी याद है.
नवल गढ़ (बनारस) में मुस्लिम गहरवार बकसरत आबाद है. यह लोग वक़्त के साथ तालीम, तिजारत और ज़राअत में किसी से पीछे नहीं. खुद को राजा जय चंद की पांचवी औलाद राजा सकत सिंह से जोड़ते हुए बतलाते हैं कि उनके मूरिसे आला सकत सिंह , चरागे हिंद मखदूम शाह के हाथों पर बैत करके मुसलमान हुए थे, जिनकी मज़ार जाफराबाद में है. उनका नाम हो गया सकत सिंह से, सकत खान. कई पुश्तों तक रिआया उनके हाथ रही. १७५७ में राजा दायम खान को राजा बनारस ने शिकस्त देकर रियासत पर क़ब्ज़ा कर लिया. उनके बाद कोई फ़र्द इकतेदार हासिल न के सका. राजा सकत खान की नस्लें जिला बनारस की नस्लें नई और पुराणी चकिया, मंझौली, भडसल, भूसी, सरबत, और किराय गाँव वगैरा में बकसरत आबाद हैं.
पुरानी चकिया का हमारा दौरा बहुत ही खुश गवार रहा. जनाब अनवार हुसैन और डाक्टर अनीसुल हक़ गहरवारों ने हमारी मेज़ बनी की रात के खाने पर हमारे साथ खानदान के मुअत्बर लोगों को बुलाया, तवील गुफ्तुगू हुई, लोगों ने हमारी मालूमात में भरपूर अज़ाफा किया. यह खानदान राजा सकत खान की नस्लें है.


चितावन पुर


अजीब ओ ग़रीब बाशिंदे, मुस्लिम गहरवारो के, जिन्हें देखने और सुनने का मौक़ा मिला. आज भी वह सब मुजस्सम हिन्दू हैं, बस उनके नाम मुस्लिम हैं. खानदानी रक़ाबत उनका धर्म और ईमान है और उनकी आन बान है. वह लोग आज भी वहशत को जी रहे हैं. हर वक़्त आमादा ए खून ओ कुश्त रहते हैं.
हमारा उनके गाँव में दाखिला उनको अच्छा न लगा. अगर मैं उनके प्रधान के नाम का हवाला न देता तो शायद अपनी इज्ज़त और सर न बचा पाता. प्रधान मौजूद न थे, उन्हों ने मुझे अपने छप्पर में बिठाया और खातिर भी की, पत्तल में शकर देकर जिसे हमें फांकना पड़ा.
मैंने अपनी तहरीक का मुद्दुआ बयां किया और उनसे अपने सवालों के जवाब देने की गुज़ारिश की. उन्हों ने बतलाया कि वह राजा घाटम देव के वंसज हैं. वाक़ेआ है कि राजा की जवान साल बेटी का इंतेकाल हो गया था, उसकी लाश चिता पर रखी गई और उसको आग दी गई कि आग पाकर चिता भरभरा कर ढह गई, कफन भस्म हो चुका था और बेटी का शरीर नंगा हो गया था. घाटम देव को इसका सदमा लगा, उन्हों ने बेटी की लाश को मुस्लिम तरीके से दफ़न कराया और ? जाकर इस्लाम क़ुबूल किया.
घाटम देव के दो बेटे सलेम खां और दरिया खां में बैर हो गया था जिसे दोनों खानदान अब तक बाक़ायदा निभा रहे हैं. साल छे महीने में दोनों धडों में खूनी जंग होती है. पुलिस की मजाल नहीं कि सरकश गाँव में घुस सके. दोनों एक दूसरे के हाथ का छुवा पानी तक नहीं पीते.
हम जिस छप्पर में बैठे थे उसमें हमने देखा कि तलवार, फरसे और दीगर हथियार खुसे हुए थे, जिन्हें देख कर हम लोगों का खून सूख रहा था. एक ने हमसे पूछा कि हम लोग हिन्दू धर्म में चले जाना चाहते हैं, आप लोगों की क्या राय है?
हमने बस इतना ही कहा आप लोग अपना फैसला बेहतर कर सकते हैं.
गाँव में बे मीनार और बे गुम्बद की एक एक मस्जिद है जो मदरसे का भी काम करती है. उसमें बच्चों को तालीम के नाम पर एक मोलवी कुरआन का रवायती दर्स देता है और जुमा जुमा उन लड़ाकुओं को नमाज़ भी पढ़ाता है. गाँव में परदे का यह आलम था कि कोई बच्ची जाद भी हमें नज़र न आई..




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गहेरवारों का इतिहास और राजा देवदत्त उर्फ़ राजा मियाँ, मेरी महदूद और मजबूर हालात की काविश है जो नामुकम्मल और अधूरी है. मुझे उम्मीद है कि आइन्दा आने वाली नस्लों में कोई लायक़ सपूत इसे मज़ीद तहक़ीक़ के बाद मुकम्मल करेगा.
जुनैद


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सलोन के मुस्लिम गहरवार (10)


गहरवार


*किसी ज़माने में कोहे विन्ध्याचल के दामन में गहरे जंगल हुवा करते थे, इस लिए यहाँ बसने वाले सूर्य वंशी और चन्द्र वंशी कौमें गहरवार कही जाती थीं. यानी गहरे जंगल के बशिदे.
*दूसरी वजेह गहरवार कहलाने की, राजा राम चन्द्र जी के नस्लों में नामवर राजा, राजा किशन हुए, जिनके बेटे गुहरदीप हुए, जिनकी औलादों ने चारो तरफ बिखर कर राज स्थापित किए. उनकी औलादे गहरवार कहलाईं.गहर दीप की नस्लों में से कुछ कबीले ने जंगल को ही अपना निवास बनाया जिन्हें आज खाना बदोशों की शक्ल में देखा जा सकता है. वह खुद को गहरवार कहते हैं. इनका इतिहास सीना बसीना आज तक जिंदा है. इनकी गाथा से तसव्वुर कायम किया जा सकता है कि इनके पूर्वजों ने मुहज्ज़ब दुन्या के आए दिन के जंगी खून खराबे से तंग आकर जंगल में रहना पसंद किया. कहीं यह हिन्दू मुआशरे से मुतास्सिर हैं तो कहीं मुस्लिम मुआशरे से. इन्हीं के मुताबिक इनके नाम हुवा करते हैं.
*तीसरी वजह गहरवार के नाम क़ी तारीख वोस्ता से मालूम होता है कि राजा जय चन्द और राजा मानिक चन्द के पांचवें पितामह राजा चन्द्र देव गाहड़वाल को, जिन्हें राजा वन्नर भी कहा जाता था,जिनके नाम से काशी का नाम वाराणसी पड़ा जो बिगड़ कर बनारस हुवा, फिर सुधर के वाराणसी हुवा. गाहड़वाल बदलते बदलते गहरवार हो गया.
अँगरेज़ मुवर्रिख ग्रीस लिखता है - - -

"पहले काशी राज गहरवारों के हुकूमत में शामिल था, गोकि वहाँ के राजा आज बरहमन हैं, चूंकि गहरवारों ने हमेशा बरह्मनो की कद्र की है इस लिए हो सकता है गहरवारों ने दान या सम्मान में बरह्मनो को दे दिया हो. आज भी कहीं कहीं गहरवार कशी नरेश कहलाते हैं."
*कौम बुंदेला भी गहरवारों से निकली हुई है. राजा गहरदीप की दसवीं पुस्त राजा वीर भद्र हुए, उनकी दो रानियाँ थीं. पहली से कई औलादें थी और दूसरी से सिर्फ़ एक बेटा हुआ, "पंचम देव गहरवार".

रवायत है कि पंचम देव अपने सौतेले भाइयों से तंग आकर बगरज़ खुद कुशी ज़ेरे दामन कोह विन्ध्याचल, 'वासनी देवी' की मंदिर गए और देवी के आगे अपनी गर्दन पर तलवार मारी. गर्दन तो न कटी मगर खून की कुछ बूँदें देवी को अर्पित हो गईं.

कहते हैं देवी नमूदार हुई और कहा - - -

" जा तेरी क़ुरबानी कुबूल हुई, तू आगे चल कर एक बड़ा राजा बनेगा. तूने मुझे अपनी खून की बूंदें दी है, इस लिए तेरी संताने बुंदेला कहलाएंगी.

सलोन के मुस्लिम गहरवार (9)











गहरवारों की मर्यादा


*दूसरा नाक़ाबिल ए फ़रामोश वाक़ेया गहेर्वारों में, रानियों की मान और मर्यादा का है - - -
कि राजा साहब ? की छोटी बेटी की बारात आई थी, कुंवर जी और राज कुमारी की शादी हो चुकी थी. शादी के बाद की रस्में हो रही थीं. कुंवर जी ने बड़ी साली को देखा तो उनके हुस्न के ऐसे दीवाने हुए कि उनका हाथ अपने हाथ में लेकर कहने लगे - - -
"आपके हाथ बहुत खूब सूरत हैं."
" अच्छा! अब हाथ छोडिए, मैं आप के लिए आपका मन पसंद तोहफा लेकर आती हूँ "

कहती हुई रानी अन्दर के कक्ष में गई, जल्लाद को बुलवा कर अपने उस हाथ को कटवा कर थाली में रखवाया और दूसरे हाथ में थाली लेकर कुंवर जी के पास आई और कहा ;
" लीजिए कुंवरजी आपको मेरा हाथ पसंद आया था, आप को अर्पित है, वैसे भी अब यह मेरे किसी काम का न रहा."
बात आग की तरह फैली, बड़ी बेटी के राज कुमार तक पहुंची,
राजपूत ने तलवार मियान से निकल लिया और अन्दर घुस कर अपने साढू का सर कलम कर दिया. शादी का घर मातम में बदल गया. यहीं तक बात नहीं गई, कुंवर जी की चिता पर नव ब्याहता कुमारी बहेन ने कूद कर अपने पति के साथ भस्म हो गई.
ऐसे आन बान के हुवा करते थे ठाकुर और ठाकुरानियों की मान और मर्यादा .
रानी पद्मिनी की ऐतिहासिक कहानी को कौन नहीं जनता.
इसके बाद तारीख साजों की कलम गहेरवारों की तवारीख को हज़रात ए नूह तक ले जाती है और इतिहास कार इसे चन्द्र वंशी राजा, राजा जनक तक ले जाते हैं जिसे इनकी क़लमी उड़ान ही कहा जा सकता है.

सलोन के मुस्लिम गहरवार (9)







गहरवारों की मर्यादा



*दूसरा नाक़ाबिल ए फ़रामोश वाकया गहेर्वारों में, रानियों की मान और मर्यादा का है - - -
कि राजा साहब ? की छोटी बेटी की बारात आई थी, कुंवर जी और राज कुमारी की शादी हो चुकी थी. शादी के बाद की रस्में हो रही थीं. कुंवर जी ने बड़ी साली को देखा तो उनके हुस्न के ऐसे दीवाने हुए कि उनका हाथ अपने हाथ में लेकर कहने लगे - - -
"आपके हाथ बहुत खूब सूरत हैं."
" अच्छा! अब हाथ छोडिए, मैं आप के लिए आपका मन पसंद तोहफा लेकर आती हूँ "


कहती हुई रानी अन्दर के कक्ष में गई, जल्लाद को बुलवा कर अपने उस हाथ को कटवा कर थाली में रखवाया और दूसरे हाथ में थाली लेकर कुंवर जी के पास आई और कहा ;
" लीजिए कुंवरजी आपको मेरा हाथ पसंद आया था, आप को अर्पित है, वैसे भी अब यह मेरे किसी काम का न रहा."
बात आग की तरह फैली, बड़ी बेटी के राज कुमार तक पहुंची,
राजपूत ने तलवार मियान से निकल लिया और अन्दर घुस कर अपने साढू का सर कलम कर दिया. शादी का घर मातम में बदल गया. यहीं तक बात नहीं गई, कुंवर जी की चिता पर नव ब्याहता कुमारी बहेन ने कूद कर अपने पति के साथ भस्म हो गई.
ऐसे आन बान के हुवा करते थे ठाकुर और ठाकुरानियों.
रानी पद्मिनी की ऐतिहासिक कहानी को कौन नहीं जनता.
इसके बाद तारीख साजों की कलम गहेरवारों की तवारीख को हज़रात ए नूह तक ले जाती है और इतिहास कार इसे चन्द्र वंशी राजा, राजा जनक तक ले जाते हैं जिसे इनकी क़लमी उड़ान ही कहा जा सकता है.

सलोन के मुस्लिम गहरवार (8)










सलोन के मुस्लिम गहरवार (8)
 
* राजा जय चंद की बेटी योगिता बाली और पृथ्वी राज चौहान की दासतान मशहूर ए ज़माना है, जिसका इख्तेसार पेश है - - -
वक़ेआ है की इंद्र परस्त (दिल्ली) के महाराजा अनंग पाल की कोई औलाद ए नरीना न थी . सिर्फ दो बेटियाँ थीं. उन्हों ने बड़ी बेटी की शादी राजा कन्नौज मुसम्मी विजय चंद गाहड़वाल से किया और छोटी बेटी का राजा अजमेर के साथ. बड़ी बेटी से राजा जय चंद थे और छोटी बेटी से पृथ्वी राज चौहान हुए, यानी दोनों मौसेरे भाई थे. नाना अनंग पल से राजा जय चंद को उम्मीद थी कि बड़ी बेटी के बेटे होने के नाते उनके वारिस वह होंगे, मगर हुवा इसका उल्टा. राजा अनंग पल ने छोटी बेटी के बेटे पृथ्वी राज चौहान को अपना वारिस बनाया. बस यहीं से दोनों में खटक गई. राज्य पिथौरा गढ़ का राजा पृथ्वी राज चौहान दोहरा राज पाकर इतराने लगा और अक्सर राजा जय चंद के ज़ख्मों पर नमक पाशी किया करता. हद तब हो गई जब उसने अपना एलची राजा जय चंद के पास भेज कर अपने लिए उनकी बेटी योगिता बाली का हाथ माँगा, जो समाजी एतबार से जायज़ था, न धर्म सांगत था, न गोत्र सांगत ही था. यह बात इशारा करती है कि पृथ्वी राज चौहान एक कम ज़र्फ हुक्मरां था.
इतिहास गवाह है कि पृथ्वी राज चौहान एक अय्याश और निकम्मा शाशक हुवा.
राजा जय चन्द उसकी इस बेजा जिसरत पर सब्र का घूट पीकर रह गए. वजह थी कि वह राज पिथौरा गढ़ से कमज़ोर थे.
दूसरा वक़ेया ये हुवा कि राजा जय चन्द ने एक तकरीब "राजस्व यज्ञ" की रस्म अदायगी की जिसमे सभी राज वर आए मगर पृथ्वी राज चौहान न आया जिस से तकरीब अधूरी मानी सी लगी. पुरोहितों ने हल निकाला कि उनका तिलाई मुजस्सिमा यज्ञ में रख दिया जाय ताकि तकरीब पूरी हो सके. जब यह बात पृथ्वी राज चौहान को मालूम हुई तो उसने इसे अपना अपमान मान कर कंनौज पर हमला कर दिया और राजा जय चन्द को शिकस्त देकर अपने मुजस्सिमे को अपने साथ ले गया.
दस्तूर राजगान के मुताबिक राज कुमारी राज्य के फातह के वारी हो जाती थी. गरज राज कुमारी योगिता बाली ने भी अपना राज धर्म निभाना चाहा. इसबात की खबर जब जय चन्द को हुई तो उन्हों ने योगिता बाली को महल से हटा कर क़ैद खाने में डाल दिया. इसकी इतेला जब पृथ्वी राज को हुई तो उसने दोबारा कंनौज पर हमला किया और योगिता बाली को रिहा करा के अपने साथ ले गया और अजमेर जाकर उसके साथ शादी रचाई.
रद्द ए अमल में राजा जय चन्द ने पूरी रूदाद सुल्तान शहाब उद्दीन को भेजी और पृथ्वी राज चौहान की सरकूबी की इल्तेजा की. सुल्तान भी पृथ्वी राज चौहान से शिकस्त खुर्दगी का ज़ख्म खाए बैठा था. उसने एक लश्करे अज़ीम लेकर पृथ्वी राज चौहान पर हमला कर दिया. इस जंग में तमाम राजाओं और महा राजाओं ने पृथ्वी राज चौहान का साथ दिया मगर सभों को हार का मुंह देखना पड़ा.
अजमेर की तबाही के बाद सुल्तान ने अजमेर की बाग डोर पृथ्वी राज चौहान के बेटे के हाथों में सौंपा और उसकी निगहबानी के लिए अपने गुलाम क़ुतुब उद्दीन ऐबक़ को मुक़ररर किया और वापस अपने वतन चला गया, जहाँ उसकी मौत हो गई. गुलाम कुतबुद्दीन ऐबक़ ने मौक़ा मुनासिब देखा और हिंदुस्तान का पहला बादशाह हुवा.
यह तारिख हिंद की एक तल्ख़ झलकी है जिसे भूल जाना ही मुनासिब होगा.







सलोन के मुस्लिम गहरवार (7)




राजा देव दत्त के अनुज राजा गूदन देव की इक्कीस पीढियां मांढा पर हुक्मरां रहीं. आखरी राजा, राजा राम गोपाल सिंह १९४१ लावलद मरे .१९३५ में उन्हों ने राजा डैइया के गहरवार सपूत "राज कुमार विश्व नाथ सिंह" को लिया था जो अंततःगहरवारों कीपुरानी हैसियत को बरूए कार लाते हुए भारत के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया. वी. पी. सिंह गरीबों और दलितों का मसीहा जिसने मंडल आयोग की ज्योति को रौशन किया. दलितों और दमितों का सच्चा रहनुमा जिसे भारत का इतिहास आने वाले समय में शीर्ष पर रखेगा.जीते जी उन्हें यह स्लोगन मिला - - -
भारत का तकदीर है राजा नहीं फकीर है.




राजा रूद्र देव रचित ग्रन्थ में राजा देव दत्त का तज़करा इस तरह है- - -



दोहा - - - महाराज भूराज के तीन तनय सुख कन्द,

देव दत, गूदन नर पति, अपर भारती चंद .
सोरठा - - - देवदत्त महाराज मुसलमान तनैह ह्वे गए,
शेर शाह सूरी के ब्याज राज काज करने परे,
दोहा - - - गूदन देव नारंद जो तज केरा क़र तान ,
कर गहि के मांढा बसे जहाँ भरन को थान.



माज़ी बईद
राजा मानिक चंद की चार औलादें थीं १-आल्ह देव २- माल्ह देव ३-लखन देव ४- वरम जीत देव .
बड़े बेटे आल्ह देव राजा कन्नौज हुए (इन्हीं की शान में मशहूर पद्य वली आल्हा ऊदल प्रचलित है.)
दूसरे बेटे ताल्ह देव अपने बल बूते पर मारवाड़ के राजा हुए.
तीसरे बेटे युद्ध करते हुए राजा पृथ्वी राज चौहान के हाथों मरे गए.
चौथे बेटे वरम जीत देव, भाई आल्ह देव से अलग होकर ज्वाला मुखी के राजा हुए. इनके बारे में हिन्दू इतिहास कार शंकित हैं कि मुस्लिम इतिहास कार की तारिख कहती है कि राजा वरम जीत गज़नी जाकर मुस्लमान हो गए और सुल्तान शहाब उद्दीन से बनारस का कुछ इलाका पाकर वहां के राजा हुए.
राजा आल्ह देव शहाबुद्दीन की जंग हुई. उससे शिकस्त खाकर मानिक पुर आकर कड़ा को अपनी राजधानी बनाई जो गंगा के दूसरी जानिब वाकेअ है. इनकी सात पुश्तें मानिकपुर के हुक्मरान रहीं. पाचवी नस्ल में सोम देव पर मुस्लिम शाशकों ने फिर हमला किया जिसकी ताब न ला सके और मानिक पुर छोड़ कर परगना केरा मंग्रोर को अपनी राजधानी बनाया जहाँ पर उनकी ग्यारह पीढियां हुक्म रान रहीं जो इस तरह हैं - - - राजा जाहिर देव, राजा रूप देव, राजा महिल देव, राजा धार्मारक देव, राजा मिश्र वेव, राजा राजा पूरन मल देव, राजा ताल देव, राजा अलख देव, राजा जयराज देव, राजा भूराज देव, और राजा देव दत्त.
राजा मानिक चंद के बड़े भाई राजा जय चंद की कोई औलाद ए नरीना न थी. उन्हों ने भतीजे आल्ह देव को गोद लेकर कंनौज का वारिस बनाया, जिनकी पीढियां राजस्थान गईं और वहां जाकर अपनी हुकूमतें कायम कीं और वहाँ के राष्ट्र वर कहलए जो कि तत्सम होकर राठौर हो गया.





































































































Friday, September 2, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार (6)





शेर शाह सूरी की पामाली के बाद उसके हम नवा भी मुतास्सिर हुए. काशी नरेश राजा देव दत्त काशी से उजड़ कर सलोन कैसे आबाद हुए इसकी, तफसील मैं हासिल करने में नाकाम रहा जिसे मैं अपने किसी गहेरवार सपूत के कन्धों पर छोड़ता हूँ. ज़िला गाज़ेटियर में इस सिलसिले में बहुत कुछ मिल सकता है. इस पर काम करने की ज़रुरत है.
मैं ने अपने बुजुर्गों से सुना है कि हमारे मूरिसे आला पूरे फ़ौज फाटे के साथ सलोन आकर आबाद हुए. उनके हमराह अहल कारों से लेकर खिदमत गार तक, कई कौमें थीं.

सलोन खालसा जो अब मोहल्ला चौधराना और मोहल्ला कैथाना के नामों से जाने जाते हैं, उनकी आबाद की हुई बस्तियां हैं. इस आबादी के घरों पर निगाह डाली जाए तो माज़ी की आबाद कारी साफ़ साफ़ नज़र आती है. मोहल्ला चौधराना ऊंचाई पर है बाकी खिदमत गारों के घर नशेब में हैं. एक ईमारत मोहल्ला चौधराना में महेल कही जाती थी जो की लखोरी ईंटों की बनी हुई थी जिसके आसार अभी भी बरक़रार हैं, शहाब खानी के आखिरी चश्म चराग रौशन खां हुए. वह लावालाद थे, वसूल तहसील के सिसिले में जा रहे थे कि रस्ते में एक नव जाद बच्चे की रोने की आवाज़ सुनी, पालकी बरदारों को इसकी जानकारी के लिए कहा. खबर मिली कि बड़ी हांडी में एक नवजाद बच्चा है जो पराई से ढका हुवा है. उन्होंने और उनकी बेगम ने उस बच्चे को गोद ले लिया और नाम दिया गज़न्फ़र खां. जिनको लोग मर्द य हांडी भी कहा करते. रौशन खां की पक्की क़ब्र बैराना में देखी जा सकती है. गज़न्फ़र खां की नस्लें मुंशी नज़ीर का खानदान है.
सलोन के बीचो बीच में गहर्वारों के घर अपने हम रुतबा बैस्यों और कायस्थों को लिए आबाद हैं. किनारे किनारे मातहत तबका खिदमत गुज़ार आबाद हैं. मेरे बचपन तक इन घरों के हाकिमाना दबदबा और उनकी मातहती अपनी अपनी जगह कायम थी, इन्कलाब ज़माने ने अब नकशा बदल दिया है. गहरवार बिखर कर अलग अलग दुन्या में आबाद हो गए हैं ज्यादा हिस्सा मुंबई और आस पास के शहरों में आबाद हैं. कुछ लोग क़ुर्ब ओ जवार के मुज़ाफात में जा बसे. आज जिन जिन गाँव में गहरवारों की रिश्ते दारियां होती हैं, वहां पर कोई न कोई हमारा बुज़ुर्ग जाकर आबाद हुआ है. शजरा इस बात का गवाह है कि बहुत से हमारे बुज़ुर्ग मफ्क़ूदुल खबर (लापता) हैं. पक्सरावाँ पूरा गहरवारों से आबाद है, कुछ घर कायस्थों के भी हैं. मूरिसे आला की नस्लों को जो सब से बड़े मसअले का सामना करना पड़ा, वह था कि रिश्ते कहाँ से लें? शुरू शुरू में गोत्र का संकट रहा होगा, जो धीरे धेरे ख़त्म हुवा होगा. बेवली, रेवली, kevli, समसपुर, धरई, मामुनी उसरैना, शहेंदिया पुर, पर्शदे पुर बगहा, अथर थरिया और गुजवर वगैरा मुख्तलिफ बस्तियों से भी लड़कियां ली गईं और वहां लड़कियां दी भी गईं. सलोन के आस पास जहाँ से भी गहर्वारों की कराबत दारियाँ है, बिला शुबह, उन सारे गाँव में हमारे मफकूदुल ख़बर बुज़ुर्ग जाकर आबाद हुए
.राजा मियाँ और रानी साहिबा की कब्रें सलोन की क़ब्र गाह में एक गुमनाम मस्जिद के साथ वाकेअ है. इनको गहरवार सपूत मिल कर अगर नई शक्ल देदें तो यह गहरवारों के लिए एक नुमायाँ काम होगा.
*राजा मियाँ अपने तीन बेटों को साथ लेकर सलोन आए. दो बेटों को नया धर्म और नई जगह रास न आई और वह वापस अपने चाचाओं के पास माँढा चले गए. वहाँ उनको खोया हवा रुतबा न मिला, शरण ज़रूर मिल गई. उनको गुज़ारे के लिए एक गाँव दे दिया गया, जहाँ वह तिसेन्हे कहलाए, आजतक दो नम्बरी ठाकुर कहलाते हैं और गाँव तिसेन्हा कहलाया जो जिला मिर्ज़ापुर में है.


न खुदा ही मिला, न विसाले-सनम,
न इधर के रहे, न उधर के रहे.

सलोन के मुस्लिम गहरवार 5

राजा देव दत्त बनाम रजा मियाँ






माँढा महेल में मिला राजा रूद्र देव रचित ग्रन्थ " सत पथ रामायण" में रामायण की भूमिका में पहले लेखक ने अपने पूर्वजों के नामों और कामों का मुख्तसर ब्यौरा दिया है, राजा देव दत्त का भी उसमे ज़िक्र है.
लिखते हैं"राजा देवदत शेर शाह सूरी के बहकावे में आकर मुस्लमान हो गए थे. शेर शाह सूरी सहसराम (बिहार) का जागीर दार था. १५४० ई में इसकी जंग मुग़ल बादशाह हुमायूँ से मुकाम क़न्नौज में हुई थी जिसमें शेर शाह सूरी ने हुमायूँ को शिकस्त देकर हिदुस्तान की बादशाहत हासिल कर ली थी. उसने ही राजा देव दत्त को कन्नौज का राजा बना देने की लालच देकर मुसलमान बना लिया था."
"गहलौत गुहर दीप " की तहरीर नक्ल है - - -
राजा देव दत्त ने अहद बहलोल खान लोधी १४५६-५८ के दरमियाँ इस्लाम क़ुबूल किया जिनका इस्म ए गिरामी "राजा मियाँ" रखा गया. बाद कुबूल इस्लाम के परगना सलोन पूरा जिसमे ३६५ मवाजात पुख्ता व् ख़म थे, आबाद हुए. राजा देव दत्त कि औलादें बजहा भट्ट कुर्ब मणिक पुर और सलोन के मुसलमान, गहरवार कहे जाते हैं.
एक किताब"गहरवार वंशज " हमें मंदिर के पुजारी ने भेंट की जो स्वर्गीय ठाकुर बटुक बिहारी की अमूल्य रचना है. वह हमारे मूरिसे आला के बारे में लिखते है - - -
"एक रात राजा देव दत्त नींद के आलम में अपनी यवनी (मुसलमान) दाश्ता का झूठा पानी पी गए सुब्ह होते ही उन्हों ने अपने अज़ीज़ ओ अकारिब और अहलकारों को इकठ्ठा किया और सब के सामने रात की घटना को बयान किया. उसके बाद एलान किया कि अब मैं हिन्दू धर्म के लायक नहीं रहा कि मैं मुसलमान औरत का झूठा पानी पीकर मुसलमान हो गया"
आगे लिखते हैं कि - - -
''अपने भाइयों और औरतों का तनाव देख कर राजा देव दत्त ने शेर शाह सूरी की पनाह ली. बादशाह को ऐसे योग पुरुष की तलाश थी, यह जानकर कि राजा अज खुद मुसलमान हुए बादशाह ने उनको इज्ज़त बख्शी."





राजा देव दत्त ने क्यूँ धर्म परिवर्तन किया यह अहम सवाल है? क्या उनहोंने क़न्नौज राज की लालच में ऐसा किया?
या हिन्दू धर्म की छुवा छूत व्योस्था का सवाल उनके दिमाग को परिवर्तन पर मजबूर किया"
इसी अमानवीय व्योस्था के कारन चौथाई हिस्सा भारत का हिदू , हिन्दू से मुस्लमान हो गया है.
जो भी हो राजा देवदत्त एक योग पुरुष थे जिसकी तारीफ बटुक बिहारी और उनका परिवार करता है,
मेरी राय में उनकी मुस्लिम पटरानी का हाथ इसमें ज्यादा रहा होगा. इसके आलावा इस्लामी सम्राज का उस वक़्त ग़लबा था जो हिंदुत्व के घोर अंध विश्वाश को इस खामयाज़े का ज़िम्मेदार ठहरता है.
बाद में पंडितों और पुरोहितों ने उनको बहुत मनाया, मन्त्र और अनुष्ठानो का रास्ता बतलाया कि उनकी पुनः वापसी हो सकती है मगर वह न माने.
इतिहास कहता है कि राजा देव दत्त संजीदा और बा वकार शख्सियत थे, इनके धर्म परिवर्तन से परिवार जन और उनके राज में कोहराम मच गया. छोटे भाइयों में इनके खिलाफ बद दिली आ गई मगर इनके मुकाबिले में इनके सामने आने की हिम्मत न कर सके और राज्य को ही तर्क कर दिया.
राजा के साथ साथ प्रजा भी आंशिक रूप से धर्म परिवर्तित हो गई. सेना सहायक वैश्य, राज पाट का लेखा जोखा रखने वाले कयाश्थ, सेवक समाज जन जातियाँ भी अपने राजा के साथ सलोन खलसा में आकर बस गईं. राजा देव दत्त की दो रानियों में एक ने उनका साथ दिया और सलोन आकर मरीं, जिनकी कब्र आज भी कब्र गाह की एक वीरान मस्जिद में राजा मियाँ की कब्र के पहलू में देखी जा सकती है. बड़ी रानी सदमें को बर्दाश्त न कर सकीं और तर्क दुन्याँ होकर सन्यास ले लिया और काशी के संत समाज से जुड़ गईं.
राजा देवदत्त ने जब इस्लाम को अपनाया तो उनका इतिहास इनके बाद हिदू समाज ने लिखना बंद कर दिया.शेर शाह सूरी का अहद सिर्फ पाँच साल का रहा जोकि हुमायूँ पर फतह हासिल करने के बाद उन्हें मिला था. पाँच साल बाद हुमायूँ की उन पर फतह हासिल करके मुग़ल सम्राज कायम किया.



Thursday, September 1, 2011

सलोन के मुस्लिम गहरवार -4


बजानिब याद ए रफ़तगां




हम लोग बनारस, मिर्ज़ापुर होते हुए माँढा पहुंचे, बस्ती में दाखिल होते ही हैरान रह गए कि बस्ती के मकानों की तर्ज़े-तामीर हू बहू सलोन जैसी थी. उसके बाद पहली आवाज़ जो एक बूढी औरत की थी, हमारे कानों में पड़ी तो हैरानी की इन्तहा न रही कि उसने सलोन में रायज गाली बकी " दाढ़ीजार के चो- - -. यह गाली सलोन की बूढी औरतों में रायज है. ये गाली गालिबन उस वक़्त वजूद में आई होगी जब मुस्लिम हुक्मरानों ने भारत पर हमला करते हुए फतह याब हो रहे होंगे.. मुकामी लोगों में दाढ़ी वालों के खिलाफ नफरत पैदा हुई होगी. उन्हों ने इस गाली को बुरे प्रविर्ति के लोगों की तरह अपने शरीर बच्चों को बकना शुरू किया होगा. अल्फाज़ थे दाढ़ी दार - - - जो उर्फ़ आम में दाढ़ी जार हो गया.
माँढा में कोई राजा मिला न राज घराना. उनका महेल अपने माज़ी की अजमतों को समेटे हुए खामोश, ज़रूर मिला. महेल के सदर दरवाजे पर चद्रवंशी पताका गर्दिश का वक़्त लिए लहरा रहा था. लोगों ने हमें महेल के प्रबंधक तक पहुँचाया. बुज़ुर्ग प्रबंधक से हम लोगों ने आने का मुद्दुआ बयान किया, उन्हों ने हमारा खैर मकदम किया और महल के पुस्तकालय से कुछ किताबें निकलवा कर मेरे सामने रख दीं. जिसका हम लोगों ने मुतलअ किया और मतलब की बातें नकल कीं. दोपहर हो चुकी थी कि देखा दो पत्तल शुद्ध भोजन चला आया, जिसकी हम लोग ज़रुरत महसूस कर रहे थे. आगुन्तुकों के लिए यह महेल की परंपरा आज तक चली आ रही थी.
खाने से फारिग होने के बाद हमने महेल को अन्दर से देखने की अपनी ख्वाहिश उन बुज़ुर्ग वार से की. उन्हों ने मंदिर के एक नव जवान पुजारी को बुलवा कर हमको उसके हवाले किया. सूने पड़े महल में सिवाए अतीत की तस्वीरों और सामानों के, कुछ खास न था. महल की गलियारे में राजगान माँढा की तस्वीरे थीं, उन्ही के दरमियान हमने देखा कि एक तस्वीर नर्गिस की लगी हुई थी.
हमने पुजारी से पूछा कि यह नर्गिस की तस्वीर यहाँ कैसे?
पुजारी ने हँसते हुए बतलाया यह नर्गिस नहीं उसकी माँ जद्दन बाई की तस्वीर है जो रजा राम गोपाल की दाश्ता हुवा करती थी.
पुजारी ने महेल के आगोश में कायम मंदिर की तरफ इशारा किया कि यह मंदिर राज घराने का पूजा स्थल है. उसमे चमकते कलश के बारे में बतलाया कि यह खालिस सोने है और इसका वज़न सात मन है.
महेल से रुखसत होते हुए हमने महेल के न्यासी बुज़ुर्ग से पूछा कि कोई मुस्लिम गहरवार का घर बतलाएँ जो मुअत्बर हो. उनहोंने हमें माँढा के बा असर खानदान का नाम बतलाया, रौशन खान जो रजवाड़े के खास रुक्न हुवा करते थे. हम दोनों वहां पहुंचे, रौशन खान के साहब जादे एजाज़ साहब मिले, उनसे मैंने अपनी तहरीक का हासिल बतलाया कि हमारे हिन्दू मूरिस ए आला इसी माँढा से तअल्लुक़ रखते थे, हम लोग अपना माजी जानना चाहते हैं. एजाज़ साहब निहायत बा अखलाक इन्सान साबित हुए. उन्होंने बतलाया कि उनके वालिद मरहूम रौशन खान राजा राम गोपाल के राजकाज के दाखली उमूर के मुहाफ़िज़ हुवा करते थे, राजा साहब के हम निवाला हम प्याला होने का मुकाम रखते थे. एजाज़ साहब ने हमें मुस्लिम गहर्वारों कि भरपूर जानकारियाँ दीं.



कई मुस्लिम गहर्वारों के हालत बतलाए, साथ साथ उन मूल पुरुषों के नाम भी बलाए जिन्हों ने इस्लाम कुबूल किया था, और असबाब भी बतलाए कि उन्होंने क्यूं धर्म परिवर्तन किया था. इनका ज़िक्र यहाँ मुनासिब नहीं कि लंबी दास्तानें हैं. एजाज़ साहब ने हम लोगों की रात में एह्तेमामी दावत की और सोने का भी इन्तेज़ाम किया.
अजीब इत्तेफाक है कि सलोन की तरह ही यहाँ कुर्ब जवार के मुस्लिम गहरवार सब के सब ज़वाल पज़ीर नज़र आए जिनके मूल पुरुष हुक्मरान हुवा करते थे.
















सलोन के मुस्लिम गहरवार -3



अपने अज़ीज़ दोस्त अतीक़ को लेकर माँढा के


राजा मियाँ का हिदू धर्म को छोड़ कर इस्लाम धर्म को अपनाना एक भूल कही जाएगी. इतनी बड़ी तबदीली बहुत सोच समझ कर करनी चाहिए थी, नज़रिए में तबदीली रातो रात नहीं आती. अपने परिवार के एक मुअत्बर सपूत थे, अपने धर्म की कमियों पर सख्त होकर अच्छे सुधार करते तो उनका यह क्रांति कारी क़दम होता. उनके इस फैसले से उनके दो चहीते अनुज उनके हाथ से जाते रहे. पूरा काशी राज शर्मिदा हुवा, इतना ही नहीं, हुमायूँ की शेर शाह सूरी पर पलट वार से खुद उनको काशी छोड़ कर भागना पड़ा.
सलोन में इनको मिले ३६० पुख्ता व खाम आबादियाँ और उनकी आराज़ियाँ जो इनको मिलीं वह सब उनके मुसलमान हो जाने की वजह से महफूज़ न रह सकीं, इलाके के हिन्दू ठाकुरों ने इन पर क़ब्ज़ा कर लिया. हमारे नव मुस्लिम पूर्वजों में से किसी ने अदालत में फरियाद गुज़ारी की थी और काबिज़ दार ठाकुरों ने अदालत हाजिरी दी थी. जब अदालत ने उनसे सवाल किया कि मौजूदः मिलकियत पर आप लोग कैसे काबिज़ हुए तो उनका खुला जवाब था

" बज़ोर लाठी"

हमारे नव मुस्लिम बुजुर्गों के पास न लाठी थी और न कोई यार व मदद गार.

दो बेटे अपने चाचाओं के पास वापस हो कर माँढा गए और पुनः हिदू धर्म में चले गए चले गए.
राजा मियाँ की चौथी नस्ल आते आते उनके तीन पड़ पोतों में ऐसी ठनी कि एक होने के बजाय मुतफ़र्रिक हो गए और बची हुई जायदादों के लिए एक दूसरे के दुश्मन हो गए और अपने अपने झंडे बना लिए. तीन भाई थे.

मियाँ शहाब खां,

मियाँ मदह खान

और मियाँ मुस्तुफा खान.

उनके नामों से उनकी औलादों ने अपनी अपनी अलग अलग पहचान बनाईं, ठाकुरों से वह

१-शहाब खानी

२- मदह खानी और

३- मुस्तुफ़ा खानी हो गए.

इन खानियों की कई खूनी जंगें हुई, नतीजतन यह एक बिरादरी बन कर खोखले हो गए.
राजा देव दत्त की नस्लों में इतनी गिरावट आ गई कि यह अपने दूसरे भाई को कमज़ोर करने में लग गए. जितना इन्हों ने आपस में एक दूसरे को पामाल किया है उसका सवां हिस्सा भी किसी दूसरे ने इन्हें पामाल नहीं किया. शहाब खानी इस की ताब न ला सके और खूब फलने फूलने के बाद भी शजरे से पूरा का पूरा कबीला रूपोश हो गया.

बाकी बचे दोनों खानियों की औलादें सलोन छोड़ कर,ज़्यादः तर दूसरी जगहों पर जाकर बसीं.
ठाकुर वैसे भी आन बान शान को रखने के लिए बाहु बली होता है, फिर मुस्लमान होकर जिहादी भी हो गया, गोया इस माहौल में वह दो आयिशा बन चुका है. हमें अपने मौजूदा माहौल में देखा है कि हमारे बुज़ुर्ग किस क़दर नाकिस और ख़ुदसर गुनाहगार हो चुके हैं. वह हर वक़्त इस फिराक़ में रहते हैं कि कैसे अपनों को कंजोर किया जाए, कोई अपने आगे दूसरे को बढ़ता नहीं देख सकता. वह भागे हुए परदेसी को भी नहीं बख्शते, कुछ नहीं तो उनको झूटे मुक़दमों में ही फंसा देते हैं, और अपने इस बद अमली पर खुश होकर कहते हैं कि

"साले को काम पर लगा दिया है"
किसी का बुरा सोचना ही हराम है, फिर अपने भाई बन्दों के लिए खैर न सोचना भी हराम है. इनका अल्लाह इनको अकले सलीम दे.
शजरा के तकमील के बाद मेरा हौसला बढ़ा मज़ीद तलाश और जुस्तुजू ने अंगड़ाई ली मगर तंग दस्ती आड़े आई, ग़ुरबत की खाईं को पाट लेना मेरी पहली मंजिल थी, जिसे १९६९ तक मैं ने हासिल कर लिया था. हालत साज़गार हुए तो एक बार फिर अपने बुज़ुर्गों के सुने सुनाए किस्से याद आने लगे.

मैंने उन तीरथ के सफ़र का क़स्द किया जहाँ से हमारे मूल पुरुष राजा मियाँ सदियों पहले आकर, सलोन को अपनी पनाह गाह बनाया था.
सबसे ज्यादा चर्चा माँढा का हुवा करता था कि मूरिस ए आला राजा मियाँ के हिन्दू भाई बंद अभी भी माँढा के राजगान जाने जाते हैं. हमारे बुज़ुर्गों में से कोई एक बार माँढा गया हुवा था जिसे वहां के राज घराने ने एक लाठी उस बँसवारी की भेंट की थी जो सिर्फ गहर्वारों के लिए मखसूस थी.

मैं ने अपने अज़ीज़ दोस्त अतीक़ को लेकर माँढा के सफ़र का प्रोग्राम बनाया जिनके कायस्त पूर्वज हमारे पूर्वज के साथ ही माँढा से सलोन आए थे.




सलोन के मुस्लिम गहरवार-2






फैज़ी चौधरी (U K )
















शजरे को मेरे बेटे फ़ैज़ी ने " Ancestry (http://trees.ancestry.com/pt/pedigree.aspx?tid=28805300)" नाम की वेब-साइट में डाल कर इसे अमर कर दिया है. जिसमे अगर आप का नाम है तो आप अपने सभी बुजुर्गों के नाम ज़ीने बज़ीने जान सकते हैं. इसके आलावा अपनी फेमली के सभी मिम्बरों के नाम और उनकी तस्वीरें आगे मुस्तकबिल में डाला जा सकता है. शजरे का नाम है "Chaudhary Family Tree".
Instructions to view the family tree - send an email to faizy.chaudhary@yahoo.co.uk . Faizy will add you as a guest member and send "Ancestry" invitation to your email address. Then you'll be able to register with Ancestry and view the tree.
हुई न एक अच्छी बात?




सलोन के मुस्लिम गहरवार - 1


एक थीं भुट्टी दादी. वह मेरे बचपन की यादगार हैं. उनको अपने गहरवार बुजुर्गों की पुश्तें और उनके आपस में रिश्ते ज़बानी याद हुआ करते थे. अपने बुजुर्गों के नस्ली सिलसिले गिनाती हुई, वह मुरिसे-आला राजा मियाँ तक पहुँच जातीं. मौजूदः नस्लों का रिश्ता खानदान के किस बुज़ुर्ग से है, वह कम्पियुटर की तरह बतला देतीं. इसके आलावा उनके अन्दर अपनी खास इन्फरादियत थी कि वह बुजुर्गों की हिन्दू रिवायत को समोय हुए थीं. कहा जा सकता है कि भुट्टी दादी अपने बुजुर्गों की मिली जुली सन्सकृति आखिरी कड़ी थीं जो हिदू रस्मों और रिवायतों को कायम किए हुए थीं. उनका कोई काम भड्डरी (पुरोहित)के परामश के बिना सम्पन्न न होता. खानदान को लोग उनकी इस हरकत से बेजार रहते. हालाँकि वह साथ साथ ये भी बतलाते कि उनके बुज़ुर्ग, और किन किन हिदू आस्थाओं के पाबंद थे.
भुट्टी दादी तो मेरे सिने बलूगत आने से बहुत पहले इस दुन्या से उठ गईं मगर मेरे खोजी ज़ेहन में तजस्सुस का बीज वह बो गईं जो अंकुरित होना चाहता था.
मैंने अपने परिवार में लोगों से सुना करता कि हमारे खानदान का कोई शजरा है, वह कहीं न कहीं मिल सकता है. मैं इसकी चर्चा अपने माहौल में करने लगा. बुजुर्गों से पूछा तो मायूसी हाथ लगी, बात मेरी हम उम्र गहरवार ज़ादी आरिफ़ा के कानों तक पहुंची. उन्हों ने शजर होने की खुश खबरी मुझे इस तरह दी कि मैं उनको मिठाई खिलाऊँ तो शजरा मिल सकता है. सुन कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. शजरा उर्दू में सेठे की कलम से लिखा हुआ एक वेठन कागज़ पर था, बड़ा ही रफ़ और टफ लिखा हुवा था. शजरे को लेकर मैं खानदान के उर्दू दान बुजुर्गों के पास बैठा और उनसे नामों को तस्दीक कराता हुआ, उसको हिंदी में तब्दील किया. शजरे में मेरे दादा के हम उम्रों के नाम थे जिसे मैं दौड़ धूप करके अपने हम उम्रों के नामों तक ले आया. यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा और आज तक जारी है. मैं ने इसे किताब के साथ साथ इंटरनेट पर डाल दिया है जिसमे आगे मुस्तकबिल में भी नाम जोड़े जा सकते हैं.
दिल चस्प वाक़िया ये हुआ कि बेचारी आरिफ़ा पर उसके नाना की शामत आ गई. नाना मरहूम बुनियाद अली खान ने आरिफ़ा से दरयाफ्त किया कि यह शजरा तुझे कहाँ से मिला? और तूने उस लौंडे को क्यूं दिया? उनकी बरहमी नाहक थी कि शजरा आरिफ़ा के वालिद अससू बाबा ने मुंशी नज़र अली से बनवाया था जो उस वक़्त पटवारी हुवा करते थे.













सलोन के मुस्लिम गहरवार