यह कीमती दस्तावेज़ गालिबन इस्तेमरारी बन्दों बस्त लागू होने के बाद के हैं. इसमें गहरवार ज़मींदारों के नाम और ज़मीन का रकबा दर्ज है. उस वक़्त ज़मीन की कोई ख़ास क़ीमत न थी, न ही
ज़मीन गुज़ारे के लिए काफ़ी हुवा करती थी. इन ज़मीनों के बल बूते कोई बशर अपने परिवार का गुज़ारा नहीं
कर सकता था. खेतियाँ मेहनत कश अफ़राद ही बचा सकते थे जो ज़मीन दारी के मालिक ज़मीन दारों के बस की बात नहीं रह गई थी.
सलोन से गहरवारों का बकसरत हिजरत परदेसों को इन्हीं वक्तों में हुवा. ग़रज़ ज़राअतें हाथों से निकलती गईं.
यह बेश बहा दस्तावेज़ मुझे शराफत उल्लाह (वल्द लाल मियाँ) से हासिल हुए जिनके दादा मेड़ई खान परदेस में रहते थे और भारी भरकम जमीन दारी नस्लों के हाथों से जाती रही.
मैं भाई शराफत उल्लाह का शुक्र गुज़र हूँ कि उन्हों ने अपने बुजुगों की अमानत दारी की जो मेरे काम आई.